- दलितों के विकास में जुटे कांसी
राम ने president बनने की भी पे शकश ठुकराई - दलितों को सत्तानशीन करने वाला
महानायक - राष्ट्रपति की वाजपाई की पे
शकश ठुकराई - बरसों तक गुपचुप तरीके से दलि
तों कर्मचारियों को एकजुट किया - मायावती के रूप में नई दलित ने
त्री को खड़ा किया - जीवनभर गैर समझौतावादी राजनीति
की
भारत के वंचित तथा दबे कुचले दलित समुदाय में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के बाद यदि किसी दूसरे दलित नेता को सम्मान की नजर से देखा जाता है तो वह हैं , कांसीराम क्योंकि उन्होंने दलितों को राजनीतिक सत्ता में भागीदार बनाया और वह भी बड़ी दबंगी से । समूचा भारतीय समाज अंबेडकर को सबसे अधिक सम्मान इसलिए देता है कि एक तो वे हमारे संविधान के मुख्य जनक थे और दूसरा उन्होंने दलितों को सर ऊंचा करके समाज में बराबरी का दर्जा कानूनी तौर पर दिलाया। वहीं उनके विपरीत कांसीराम ने बरसों बरस गुपचुप तरीके से जमीनी स्तर पर काम किया और दलित समुदाय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर आईएएस अधिकारी तक सबको जोड़ा और समय आने पर अपनी ताकत दम ठोंक कर दिखा दी। उत्तर प्रदेश की कई बार मुख्य मंत्री रहीं मायावती इसी ताकत का जीता जागता उदाहरण हैं।
मायावती सहित सभी लोगों के बीच मान्यवर के नाम से प्रचलित कांसीराम एक अक्खड़ किस्म के नेता थे जिसने दलित समाज को एकजुट करके उत्तर भारत की हिंदी पट्टी की राजनीतिक धारा को जी पलट कर रख दिया था।कांसीराम के राजनीति में प्रवेश को पीछे एक बड़ी दिलचस्प घटना जुड़ी हुई है। दरअसल, 1958 में कांसीराम पुणे में रक्षा मंत्रालय के एक विभाग डीआरडीओ की एक परिक्षणशाला में तैनात थे, तब उनके दफ्तर में ज्योतिबा फुले के नाम पर छुट्टी रद्द कर दी गई। कांसीराम ने इसका जमकर विरोध किया और वहां कार्यरत सभी दलित कर्मचारियों और अफसरों को एकत्रित करके छुट्टी मंजूर करवा ली। वहीं से उनकी समझ में आ गया की दलितों के एक किए बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।
अटल बिहारी वा जपेई ने कांसीराम को राष्ट्रपति पद की पेशकश की थी
उन्होनें शोषित समाज संघर्ष समिति का गठन करके देश भर के सभी सरकारी दलित कर्मचारियों को जोड़ना शुरू कर दिया , कांसीराम का राजनीतिक कौशल अलग ही था। वे जब तक जिए समझौते की बजाय टकराव की राजनीति का ही रास्ता अपनाया। मान्यवर, जब कभी भी किसी जनसभा में अपने भाषण की शुरुआत ही यह कहकर करते थे कि अगर श्रोताओं में ऊंची जाति के लोग शामिल हैं तो वे अपने बचाव के लिए चले जाएं।एक बार अटल बिहारी वाजपेई ने कांसीराम को राष्ट्रपति पद की पेशकश की थी जिसका उन्होंने यह कहकर मजाक उड़ा दिया था कि वे राष्ट्रपति नहीं प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। अब बाजपेई क्या बोलते क्योंकि वे खुद प्रधानमंत्री पद पर विराजमान थे।
कांसीराम की खोज मायावती
साल 1977 के दौरान कांसीराम ने कहीं किसी सभा में मायावती को भाषण देते हुए सुना और उनमें उनको एक भावी दलित नेता दिखाई दिया। कांसीराम ने मायावती के पिता से गुजारिश की कि मायावती को प्राथमिक शिक्षक की नौकरी छुड़वा कर राजनीति में प्रवेश करने दें। पर, मायावती के पिता ने साफ इंकार कर दिया।
मायावती ने किसी को भी उनसे मिलने नही दिया
चूंकि, मायावती खुद काफी महत्वकांक्षी थीं इसलिए उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ दिया और पार्टी दफ्तर में रहने लगीं। यहीं से उनके राजनीतिक कैरियर की शुरआत हुई। 995 में मायावती देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की सबसे युवा और दलित मुख्य मंत्री बनीं। पर कांसीराम की उत्तराधिकारी मायावती कालांतर में उनकी सत्ता संभाल नहीं पाईं क्योंकि वे भ्रष्टाचार में लिप्त हो गई थीं इसी कारण कांसीराम के अंतिम दिनों में अपनी शिष्या से गहरे मतभेद पैदा हो गए थे।यह बात भी बहुत उछली थी कि कांसीराम यानी मान्यवर के आखरी दिनों में मायावती ने किसीको भी उनसे मिलने नही दिया। जिस पर खासा विवाद भी हुआ था।
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर से प्रभावित रहे
पंद्रह मार्च 1934 को पंजाब में पैदा हुए कांसीराम ने 1971 में बामसेफ और डीएस 4 नामक संगठनों का गठन किया और 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनाई। वे संसद के दोनो सदनों के सदस्य रहे थे। अपने जीवन के शुरुआती दौर में कांसीराम बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर से प्रभावित थे। कांसीराम को अपने और दलित समाज पर कितना गर्व और भरोसा था इसका अनुमान उनके उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि वे पहला चुनाव हारने के लिए लड़ते हैं, दूसरा अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए