पार्टी के रूठे नेता और अल्पसंख्यकों ने बदला पाला

हिमाचल के बाद अब कर्नाटक में बीजेपी की हार के पीछे कईं कारणों की चर्चा हो रही है, लेकिन विशेषज्ञों की माने तो इन दोनों चुनावों में हार के पीछे एक और बड़ी वजह है जिसपर ज्यादा चर्चा नहीं हो पा रही वो है और वो है बीजेपी का रूठे हुए , बगावती नेताओं को मनाने की बजाय उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाने का रवैया।

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देखा जा रहा है बीजेपी बड़ी आसानी से अपने कद्दावर नेताओं की उपेक्षा कर लेती है। शायद बीजेपी नेताओं को लगने लगा है कि वो इतने कद्दावर हो चुके हैं कि रूठ कर बगावत कर नेताओं के जाने पर भी उनकी विजय यात्रा में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पिछले कुछ समय से बीजेपी शायद इसी गलतफहमी में जी रही है।

विशेषज्ञों का मानना है कि बीजेपी अपने यहां उठी बगावत को बातचीत और विनम तरीके से सुलझाने की बजाय उसे कुचलने का ज्यादा प्रयास करती है जिसका खामियाजा उसने कर्नाटक —हिमाचल के चुनावों में झेला है।

दूसरा कारण माना जा रहा है अल्पसंख्यकों की लगातार उपेक्षा, बीजेपी को लगता है कि इनकी उपेक्षा करके वो चुनाव बड़ी आसानी से जीत सकती है पर इन दो राज्यों की हार से कुछ सीखना पड़ेगा ही।

पहले कर्नाटक की बात करते हैं , चुनाव के दौरान बीजेपी ने अपने कई कद्दावर नेताओं को टिकट नहीं दिए। इनमें सबसे ज्यादा चर्चा हुई जगदीश शेटर और लक्षमण स्वादी की। दोनों को टिकट नही मिले दोनों ने कांग्रेस से चुनाव लड़ा ।

हालाकि लक्षमण स्वादी ने जीत हासिल की शेटर हार गए। पर यहां सवाल विद्रोही नेताओं की हार जीत का नहीं बलिक बीजेपी के वोट काटने का है। चूंकि ये दोनों ही दोनों ही लिंगायत समाज के जाने-माने चेहरे थे, और लिंगायत की नाराजगी का खामियाजा बीजेपी को उठाना पड़ा।

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हिमाचल में हुई बगावत

इससे पहले हिमाचल में हुई बगावत को सही ढंग से निपटाने में फेल हुई बीजेपी को इसका खामियाजा उठाना पड़ा। बीजेपी को यहां 5.8 नगेटिव वोट पड़े जो 11 sitting MLAs का टिकट काटने और बहुत से एमएलए से सलाह मशिवरा किए बिना उनकी constituencies बदलने का परिणाम माने गए।

टिकट ना मिलने पर बहुत से विद्रोही नेताओं ने निर्दलीय चुनाव लड़ा वो जीते तो नहीं पर बीजेपी के वोट काटने और कांग्रेस को विजय दिलाने में अहम भूमिका निभाई।

पार्टी में विद्रोह और विद्रोही पार्टी की जीत को कब-कैसे हार में कैसे तबदील कर सकते हैं इसका सबक बीजेपी को हिमाचल और कर्नाटक में मिली हार से जल्दी से जल्दी ले लेना चाहिेए, क्योंकि इसी साल राजस्थान, मधयप्रदेश , तेलांगना, छतीसगढ में चुनाव होने वाले हैं। अगर इन राज्यों में बीजेपी को जीत हासिल करनी है तो और बातों पर ध्यान देने के साथ उसे अपनी रणनीति बदलनी होगी। इन राज्यों में भी उठ रहे बगावत के सुर को कुचलने की बजाय नेताओं को समझाने और फिर से पार्टी में जोड़ने का काम करना होगा।

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चुनाव से पहले बगावत का झुनझुना तो हर प्रार्टी में बजता है। लेकिन जो पार्टी इस झुनझुने को प्यार , समझदारी, विन्रमता सलाह मशवरे से दूर करने की कोशिश करती है बहुत बार वह चुनाव में सिकंदर बन ही जाती है।

अब बात करते हैं अल्पसंख्यक वोटों की, कर्नाटक औक हिमाचल की हार ने बीजेपी को इसका महत्व समझा दिया होगा। कर्नाटक में कांग्रेस को ७८ प्रितशत मुसलिम वोट मिलने से जहां बीजेपी में खलबबी मची हुई है वहीं मुसिसम बहुबल इलाकों में सता पर बैठे कंईं विपक्षी दलों की नींदे इस बदले समीकरण के कारण उड गई हैं।

जैसे कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की,,,, ये इसलिए हैरान -परेशान हैं कि कहीं कांग्रेस ने कर्नाटक की तरह मुस्लिम वोटों को इकटटा करने और उसे जीत में बदलने का फामूर्ला बंगाल चुनावों में दोहरा दिया तो उनके सिर से मुखयमंत्री का ताज जा सकता हैं। सबको पता है कि ममता को जीताने में मुसलिम समुदाय का बड़ा हाथ रहता है।

उतरप्रदेस में तो मुस्लिम वोट पाने के लिए समाजवादी पार्टी के साथ बहुजन समाज पार्टी हमेशा रेस में आगे रहते हैं ऐसे में अखिलेश यादव और मायावती भी नहीं चाहेगें की मुसलिम इकटा होकर कांग्रेस की झोली में चले जाएं और उनकी सीटें कम हो जाएं। क्योंकि ये दोनों जानते हैं कि यदि कांग्रेस से कभी समझौता भी करना पड़ेगा तो सीटों के आधार पर ही गठबंधन में उनका कद , उनका रूतबा तय होगा।

केरल में २६-२६ मुसिलिम आबादी है

केरल में २६-२६ मुसिलिम आबादी है, जिन्होने काफी हद तक यहां लेफ्ट डमोक्रेटकिस की सरकार बनाने में अपना सहयोग दिया ऐसे में लेफ्ट डेमोक्रोटिक पार्टी की सरकार कतई नहीं चाहेगी कि उसका मुसिलम वोट कहीं खिसके ।


दिल्ली हो या पंजाब केजरीवाल ने भी मुफत की रेबडियां बांटने की कवायद के तहत हर वर्ग, हर धर्म का वोट बैक जुटाया है और वो भी किसी कीमत पर इसे नहीं खोना चाहेगे।अब बात करते हैं बीजेपी की, पिछली बार बड़ी संख्या में उतरप्रदेश में बीजेपी को मुसलिम वोट मिले और उसने रिकार्ड तोड जीत हासिल की।

वहीं पिछली बार करनाटक चुनाव में भी बीजेपी मुसलिम को रूछाने में काफी हद तक कामयाब रही , जिससे लगने लगा था कि मोदी के नारे सबका साथ, सबका विकास का अल्पसंखयतों पर असर पड़ रहा है और वो मोदी सरकार पर विशवीस करने लगे हैं लेकिन इस बार कर्नाटक के के रिज्लट् ने सब उलिट फेर कर दिया। और लगने लगा कि मुसलमानों का दिल और वोट जीतने के लिए बीजेपी को बहुत काम करना होगा।

मुसिलम समुदाय का काग्रेस के प्रति बढ़ता विशवास जहां मोदी सरकार को २०२४ में होने वाले लोकसभा चुनावों में भारी पड़ सकता है वहीं कांग्रेस की मुसिलम वोट पर बनती जबरदस्त पकड़ ने विपक्षी दलों को भी राजयों में बनी अपनी सरकारों के डोलने का खतरा नजर आने लगा है।

इसके साथ ही कर्नाटक की जीत कई मायनों में डूबती कांग्रेस के लिए वरदान साबित हो रही है। सबसे बड़ा वरदान है विपक्षी दलों ने एक बार फिर कोग्रेस को अपना नेता मानने की कवायद शुरू कर दी है।

आपको तो याद ही होगा मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट हो रही विपक्षी पार्टियों ने काग्रेस को अपने अभियान से लगभग अलग थलग कर दिया था , अब उन्ही पार्टी के सुप्रीमों कांग्रेस को जीत की बधाई देते नहीं थक रहे। ये वही ममता बनर्जी , अखिलेश यादव , केजरीवाल और कई और विपक्षी दल हैं जो कल तक कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन करने से कतरा रहे थे।

इनहोने कई मौकों पर खुलकर कांग्रेस की बुराई की, कांग्रेस की ओर से बुलाई गई बैठकों का बहिछकार किया। आज ये सभी काग्रेस के गुनगान कर रहे हैं । कईयों ने कहना तक शूरू कर दिया कि मोदी हराने के अभियान को कांगेस ही सफलता दिला सकती है।

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कर्नाटक की जीत ने उन नेताओं को भी आइना दिखाया है , जिनहोने सिर्फ इसलीए पार्टी छोडी क्योंकि उन्हें राहुल और प्रियंका के नेत़तव पर भरोसा नहीं था । कागेरस के कई बड़े नेता जो समय समय पर राहुल और प्रियंका की क्षमता पर सवाल उठात्ते रहे हैं । इस जीत ने उनके भी मुंह बंद कर दिए हैं।

कांगेस की किसमत बदलने के साथ कर्नाटक के चुनाव कईं और बड़े संदेश लेकर सामने आया है। पहला ,-जिस तरह कर्नटक में भी मुफत की चीजे बांटने के वादे ने कांग्रेस को सफलात का रास्ता दिखाया, अब आगे होने वाले चुनावो में मुफत की रेवडियां बांटने के वादों का जोर पकड़ेगा।

दूसरा इस चुनाव में क्षेत्रीय पार्टी जेडीएस —दो बड़ी पार्टियो की लड़ाई में अपना दबदबा कायम नहीं कर सकी , माना जा रहा और अनय राजयो में होने वाले चुनाव मे भी , क्षेत्रीय दलों को साइड लाइन करते हुए चुनावी लडाई कही सिर्फ बीजपी और काग्रेस की लड़ाई ना बन जाएं । तीसरा इस जीत से विपक्षी एकता को भी मजबूतीमिली है इसमें कोई दो राय नहीं है।

इन सब को इस साल के अंत तक कुल पांच राज्यों में होने वाले चुनावों पर भी असर दिखेगा। इन महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों की तस्वीर साफ कर देंगे क्योंकि इन पांच राज्यों में से चार हैं हिन्दी भाषी क्षेत्र में जहां वर्तमान में सत्तारूढ़ भाजपा का दबदबा है और केवल पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम का शायद ही कोई राजनीतिक महत्व है।

तेलंगाना में मुकाबला काफी दिलचस्प होने वाला है क्योंकि यह बहुकोणीय मुकाबला होगा। चार उत्तर भारतीय राज्य छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हैं तीन हिंदी भाषी राज्यों में, भाजपा वर्तमान में केवल मध्य प्रदेश में शासन करती है जबकि कांग्रेस दो राज्यों छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता में है। तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति नाम की एक स्थानीय क्षेत्रीय पार्टी का शासन है।

मध्य प्रदेश में, भाजपा 2003 से सत्ता में है। मध्य प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सत्ता हासिल करने में कामयाब रही, लेकिन कांग्रेस विधायक दल को विभाजित करके भाजपा वापस लौट आई।

हालांकि इस बार भी लोगों का मूड सत्ता पक्ष के खिलाफ दिखाई दे रहा है क्योंकि उसने राज्य की अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ किया है.हालांकि दोनों पार्टियों को भीतर से परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन भाजपा का सत्ता संघर्ष विपक्ष से ज्यादा गंभीर लगता है, क्योंकि ऐसा लगता है कि सत्ता पक्ष के आलाकमान ने एक मजबूत सत्ता विरोधी लहर का मुकाबला करने के लिए एक नया चेहरा पेश करने का फैसला किया है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चव्हाण के खिलाफ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों इस बार ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने के पक्ष में हैं, लेकिन इस कदम का चौहान ने कड़ा विरोध किया है, जो अगर एक और कार्यकाल से इनकार करते हैं तो पार्टी के वोट बैंक में कटौती करने की क्षमता है क्योंकि पिछले 20 से राज्य में शासन कर रहे हैं। वर्षों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

इसी तरह राजस्थान में बीजेपी के लिए मुख्य चुनौती वसुंधरा राजे सिंधिया को संभालना है क्योंकि उनके समर्थन के बिना कांग्रेस पार्टी की अशोक गहलोत की सरकार को हटाना बीजेपी के लिए आसान नहीं है.

मोदी और शाह के वसुंधरा के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं हैं और यह पूरी तरह से जानते हुए भी कि वह पार्टी विधायकों को नियंत्रित करती हैं, उन्हें बदलने पर आमादा हैं। दिलचस्प बात यह है कि वह गहलोत के साथ बहुत अच्छे रिश्ते में हैं और जब सचिन पायलट ने पहले बगावत की थी, तब सत्ता को बनाए रखने में उनकी मदद की थी।

पायलट की बीजेपी में एंट्री रोकने में भी उनकी अहम भूमिका रही है. वसुंधरा का मुकाबला करने के लिए आलाकमान के किसी भी विकल्प को पेश करने से परहेज करने के पीछे यही समीकरण है।

पायलट जिस बगावत के बैनर को बार-बार उठाते रहे हैं, उसका बहुत कम राजनीतिक महत्व है क्योंकि उन्होंने केवल 14 विधानसभा क्षेत्रों में पकड़ बनाई है जबकि गहलोत काफी लोकप्रिय राजनीतिक व्यक्ति हैं जो कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने की क्षमता रखते हैं।

कांग्रेस नेतृत्व इस तथ्य से अवगत है और ठीक इसी कारण से गहलोत राज्य पर शासन कर रहे हैं। ऐसे में राजस्थान विधानसभा चुनाव के नतीजों को आसानी से अप्रत्याशित कहा जा सकता है.

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस इसलिए बेहतर नहीं दिख रही है क्योंकि बघेल सरकार ने अपने शासन के दौरान चमत्कार किया है, बल्कि दो कारणों से भाजपा की विफलता है; पहला अपने नेताओं को एक साथ रखने में असफल होना और दूसरा एक लोकप्रिय नेता को प्रोजेक्ट करने में विफल होना।

राज्य में भाजपा के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक नंद कुमार साय के कांग्रेस में प्रवेश से पार्टी को गंभीर नुकसान हुआ है क्योंकि इसने अपने दो बार के मुख्यमंत्री रमन सिंह को पहले ही छोड़ दिया है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व इस आदिवासी राज्य के भविष्य को लेकर बेपरवाह नजर आ रहा है और भाजपा की शालीनता के कारण कांग्रेस बेहतर स्थिति में है।

दक्षिणी तेलंगाना में जहां इस साल के अंत में मतदान होने हैं, वहां बहुपक्षीय मुकाबला होने की संभावना है क्योंकि अभी तक सभी राजनीतिक दलों ने किसी भी चुनावी गठबंधन में प्रवेश नहीं किया है। सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति को मुकाबले का चुनावी लाभ मिल सकता है क्योंकि यहां भाजपा अपेक्षाकृत एक छोटी पार्टी है जिसका कोई चुनावी साथी नहीं है।

कांग्रेस भी इसी स्थिति का सामना कर रही है, लेकिन क्षेत्र में अपनी पुरानी जड़ों के कारण उसके पास भाजपा की तुलना में अधिक ताकत है। तीसरी प्रवेशी तेलुगु देशम पार्टी है जो वर्तमान में आंध्र प्रदेश पर शासन कर रही है और पहले के संयुक्त आंध्र प्रदेश का हिस्सा होने के कारण यह दूसरे स्थान पर हो सकती है।

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