BJP के तीन leader – हमेशा रहे top पर , bjp को उचांइयों तक पहुंचाया पर कहां हैं गुम
मुरली मनोहर जोशी
कहा जा सकता है भारतीय राजनीती में कईं दशकों तक टांप पर रहे डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी आज बिल्कुल हाशिये पर खडे हैं। भारतीय जनता पार्टी की सफलता की नींव रखने वाले, ये वही मुरली मनोहर जोशी हैं जो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे जब देश की प्राचीन कालीन धरोहर बाबरी मस्जिद गिराई गई थी।
पार्टी के भीतर लाल किशन आडवाणी से उनकी तल्खियां और पीएम नरेन्द्र मोदी के साथ मुरली मनोहर जोशी का विवाद हमेशा चर्चा का विषय रहा है, पीएम अटल बिहारी वाजपेई ने आडवाणी के विरोध के बावजूद अपने पहले और अल्प शासन काल में आडवाणी की जगह मुरली मनोहर जोशी को गृह मंत्री बनाया था
वहीं 2014में वाराणसी सीट को लेकर मुरली मनोहर जोशी ने खुलकर मोदी को विरोध किया था, जोशी वाराणसी सीट छोडना नहीं चाहते थे पर मोदी के लिए छोडनी पड़ी, उसी दौरान उन्होने खुलकर ये तक कह दिया था कि देश में कोई मोदी लहर नहीं है।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को भ्रष्टाचार के आरोपों में गिराने में डॉक्टर जोशी का एक बहुत ही बड़ा योगदान रहा है।
जब तत्कालीन महालेखा नियंत्रक विनोद राय फर्जी 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को अंजाम दे रहे थे तब डॉक्टर जोशी लोक सभा की लोक लेखा समिति के चेयरमैन थे और उन्होंने समिति के सदस्यों के विरोध के बावजूद विनोद राय की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया था और माना जाता है कि यूपीए सरकार का वर्ष 2014 में चुनाव हारने में ये भ्रष्टाचार एक बड़ा कारण भी बना था।
डॉक्टर मनोहर लाल जोशी साहब के राजनीतिक सफर एक ऐसा पक्ष भी है जिसे वे शायद ही याद करना चाहते हों। 1991 में उनके द्गारा कन्याकुमारी से निकाली गई एकता यात्रा का समापन 26 जनवरी 1992 को जम्मू और कश्मीर स्थित श्रीनगर के लाल चौक में हुआ था। लेकिन इस यात्रा में मुरली मनोहर जोशी सफलतापूर्वक लाल चौक पर तिरंगा नहीं फैरा पाए था।
उस घटना के कुछ चश्मदीद कहते हैं कि स्थानीय लोगों की उपस्थिति न के बराबर थी। पर उस समय की मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक डॉक्टर जोशी और उनके साथी आतंकवादियों के भय के कारण लाल चौक पर बिना तिरंगा फहराए आनन फानन में भाग आए थे।
फीजिक्स के अध्यापक रहे डा जोशी की प्राचीन इतिहास, वेदों में पूरी रूचि रही है। कॉलेज दिनों से ही आरएसएस से जुड़े थे और 1953 से 55 तक गाय रक्षा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल के दौरान 1975 से 77 तक जेल काटी। कहा जाता है कि डॉक्टर जोशी के साफ और मुंहफट व्यवहार से तो उनके विरोधी भी कायल रहे हैं।
अफसोस ही है कि राजनीति के शिखर पर रहे डा मुरली मनोहर जोशी जो विद्वान और उच्च वैज्ञानिक शिक्षा से परिपूर्ण हैं, इन दिनों गुमनामी में घिरे हुए हैं। लुटियांन दिल्ली के रायसीना रोड पर स्थित इनका बंगला जो हमेशा बड़े बड़े नेताओं , मीडिया से घिरा रहता था आज सुनसान किसी के आने की राह ताकता रहता है।
यशवंत सिन्हा
भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक काबिल अफसर से वित्त मंत्री औरविपक्ष के संयुक्त प्रत्याशी के रूप में राष्ट्रपति चुनाव में उतरने वाले यशवंत सिन्हा को राजनीति के हिंदुस्तानी संदर्भ में हिंदुत्व और समाजवाद के एक मिलजुले व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है।
यशवंत सिन्हा का शुमार उन अग्रिम पंक्ति के नेताओं में किया जाता है जो सत्तारूढ़ भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के राजनीतिक पटल पर बर्चस्व कायम करने के बाद राजनैतिक बुत मात्र बनकर रह गए हैं।
स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्रित्व काल में सिन्हा की गिनती देश के दस सबसे शक्तिशाली नेताओं में होती थी।
वे दो बार वित्त और एक एक बार परिवहन और विदेश मंत्री रहे हैं। बाजपेई और आडवाणी के लिए सिन्हा इस कदर महत्वपूर्ण थे कि जब भी उन दोनों को आर्थिक मामलों में आरएसएस नेताओं से मिलना होता था तो वे हमेशा सिन्हा को अपने साथ ले जाते थे।
चूंकि यशवंत सिन्हा अपने को अर्थशास्त्र के स्वदेशी मॉडल के काफी करीब पाते हैं। इसलिए उन्होंने काफी समय तक आरएसएस की अग्रिम संस्था स्वदेशी जागरण मंच की सलाह पर काम किया। लेकिन कालांतर में दोनों के बीच आर्थिक नीतियों को लेकर मतभेद पैदा हो गए खासतौर पर विश्व व्यापार संगठन के समक्ष प्रस्तुत किए गए कृषि क्षेत्र से जुड़े डंकल प्रस्तावों पर जिनका स्वदेशी जागरण मंच ने समर्थन किया था और सिन्हा इन प्रस्तावों के कट्टर विरोधी थे।
डंकल प्रस्तावों के प्रति जनता के बीच जागरूकता पैदा करने के मकसद से सिन्हा ने अपने चुनाव क्षेत्र हजारीबाग से पटना तक एक साइकिल यात्रा भी निकाली थी। मोदी शाह जोड़ी द्वारा भाजपा पर नियंत्रण के बाद से सिन्हा पार्टी के भीतर इसलिए किनारे पर बैठा दिए गए थे क्योंकि एक तो आडवाणी के काफी नजदीक थे और दूसरे उनकी पृष्ठभूमि आरएसएस की कभी नहीं रही थी।
दरअसल, यशवंत सिन्हा की राजनैतिक विचारधारा समाजवादी थी। इसलिए वे जयप्रकाश नारायण से प्रभावित होकर 1984 में सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर जेपी आंदोलन में कूद पड़े थे।
आर्थिक नीतियों के मामलों में सिन्हा दक्षिणपंथी राजनीति के करीब थे, तभी जेपी आंदोलन के बाद के दौर में उनकी नजदीकियां वाजपेई और आडवाणी से बड़ गईं थी और यही समीपता चंद्रशेखर की साकार गिरने के बाद उनको भाजपा में ले गईं।
चार दशकों में फैले अपने लंबे राजनीतिक सफर में सिन्हा बहुत ही कम बार विवादों के दायरे में घिरे पाए गए। पहली बार उनका नाम विवादों में तब आया जब बतौर वित्त मंत्री उन्होंने बैंकों द्वारा दी जाने वाली ब्याज दरों को कम कर दिया था।
इसको लेकर विपक्ष ने खूब हल्ला मचाया और आम खाताधारकों ने भी सिन्हा की कड़ी निन्दा की जिससे उनकी छवि पर विपरीत असर पड़ा था।दूसरी बार। वे उस समय विवादों में आए जब उन्होंने मोदी शाह की कार्यशैली का कड़ा विरोध किया और बाद में राष्ट्रपति पद के चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था।
हालांकि इसके बावजूद सिन्हा भाजपा की प्रमुख समितियों में बने रहे लेकिन मोदी शाह की जोड़ी ने उनको किनारे कर दिया।सिन्हा का नाम फिर से सुर्खियों में तब आया जब उन्होंने पेगासस जासूसी कांड और राफेल खरीद घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थीं। रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन का समर्थन करने के कारण भी सिन्हा को भाजपा के भीतर मोदी समर्थकों के कोप का भाजन बनना पड़ा।
सिन्हा 2004 में चुनाव हारने के बाद धीरे धीरे राजनीति में असक्रिय रहने लगे और अपनी पार्टी के भीतर उपेक्षा के मद्देनजर उन्होंने 2018 में भाजपा से अपना दामन छुड़ा लिया और अपने बेटे जयंत के लिए रास्ता साफ कर दिया। जयंत मौजूदा सरकार में कनिष्ठ मंत्री के पद पर विराजमान हैं।
भाजपा छोड़ने के बाद सिन्हा ममता बनर्जी के आग्रह पर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। उनको 2022 में तृणमूल कांग्रेस से त्यागपत्र देना पड़ा क्योंकि वे उस साल हुए राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में उतारे गए। यह चुनाव वह हार गए
छह नवंबर 1937 को पैदा हुए यशवंत सिन्हा ने पटना विश्वविद्यालय से राजनैतिक विज्ञान में एमए करने के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हुए और 24 साल तक विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए देश विदेश में काम किया। यशवन्त सिन्हा ने पश्चिम जर्मनी और फ्रैंकफर्ट में भारतीय दूतावासों में उच्च पदों पर काम किया।
प्रशासनिक सेवा छोड़ने के बाद सबसे पहले वे समाजवादी विचारधारा से लैस जनता पार्टी में शामिल हुए और पार्टी में विभाजन के बाद चंद्रशेखर की अगुवाई वाले धड़े में शामिल हो गए। चंद्रशेखर की सरकार में सिन्हा पहली बार वित्त मंत्री बने।
सरकार गिरने के बाद उन्होंने अपनी वफादारी भाजपा को समर्पित कर दी और वाजपेई की पहली अल्पमत वाली सरकार में वित्त मंत्री बनने से पहले पार्टी में कई महत्वपूर्ण ओहदों पर रहे।
समाप्त
लाल कृष्ण आडवाणी
लाल कृष्ण आडवाणी भारत के इतिहास में उस प्रभावशाली राजनेता के रूप में हमेशा याद रखे जायेगें , जिसने विभाजनकारी राजनीति के जरिए भारत को धार्मिक कट्टरवाद की ओर धकेलने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई।
यह बात किसी से छुपी नहीं रही कि आडवाणी के दशकों लंबे राजनीतिक सफर का लक्षय हमेशा से प्रधान मंत्री का पद रहा, पर अफसोस उनका ये सपना कभी पूरा नहीं हुआ।
और शायद यही कारण रहा कि आडवाणी 2013 में सभी पदों से इस्तीफा देकर गुमनामी के अंधेरे में खो से गए। और दूसरी तरफ लगभग इसी समय नरेंद्र मोदी का केंद्र की सत्ता में आगमन हुआ।
आडवाणी को उनके द्वारा 1990 में की गई एक राष्ट्रव्यापी यात्रा के लिए भी याद किया जाता है जिसके तुरंत बाद भारतीय जनता पार्टी देश के राजनीतिक पटल पर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी , और लोक सभा में उसकी संख्या 1984 में रही दो से बड़कर 1998 में 182 पहुंच गई।
आडवाणी की इस रथ यात्रा का समापन अयोध्या स्थित सदियों पुरानी बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस के साथ। और साथ ही भारत की राजनीति में भाजपा का वर्चस्व भी स्थापित हो गया जो अभी तक कायम है। पर कहा जाता है कि आडवाणी के लिए उनकी रथयात्रा एक अभिशाप भी साबित हुई क्योंकि 2004 में हुए आम चुनावों में आडवाणी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बावजूद उनकी पार्टी बुरी तरह से चुनाव हार गई।
इसके बाद आडवाणी ने अपनी कार्यशैली में बदलाव जरूर किया , पर यह बदलाव उनको प्रधानमंत्री पद से और दूर करता गया। वर्ष 2020 में बाबरी मस्ज़िद विध्वंस मामले में बरी होने से पहले आडवाणी ने इस अपराध से बचने की जी तोड़ कोशिश की लेकिन जब कामयाब हुए तब तक पासा पलट चुका था।
अपने राजनीतिक सफर के दौरान आडवाणी ने कई उतार चढ़ाव देखे और उनका नाम कई बार विवादों में भी घिरा। ऐसा ही एक विवाद था जैन हवाला कांड में उनका नाम आना।
इस विवाद के कारण आडवाणी एक बार लोक सभा चुनाव तक नहीं लड़ पाए। माना जाता है कि दक्षिणपंथी राजनीति के शीर्ष नेता आडवाणी की 2005 में की गई पाकिस्तान यात्रा उनके राजनीतिक कैरियर के ताबूत की अंतिम कील साबित हुई क्योंकि जिन्ना को लेकर पाकिस्तान की धरती पर दिए गए आडवाणी के बयान ने आरएसएस को पूरी तरह से उनके खिलाफ कर दिया और नरेंद्र मोदी हिंदुत्व राजनीति के नए पोस्टर बॉय के रूप में उभरकर सामने आए।
आठ नवंबर 1927 को कराची में जन्मे लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने दशकों लम्बे राजनीतिक कैरियर की शुरुआत आरएसएस से की। भारत विभाजन के बाद उन्होंने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा, दिल्ली और केंद्रीय सरकारों में विभिन्न ओहदों पर काम कियावे भाजपा के संस्थापकों में से एक रहे हैं । आडवाणी 1986 से 1991 तक भाजपा अध्यक्ष बने।
बयानब्बे वर्षीय आडवाणी 2002 से 2004 तक देश के उपप्रधानमंत्री बने। इससे पहले वे 1986 में दिल्ली मेट्रोपोलिटिन परिषद के सदस्य से लेकर वाजपाई के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में 2004 तक विभिन्न विभागों में मंत्री रहे। पर आज इस शीर्ष नेता का नाम शायद ही भाजपा के किसी अहम काम , नीति बनाने या किसी और जगह याद किया जाता है।
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